बिहार चुनाव कथा : यादव-भूमिहार के सटा-सटी से क्या सच में राजद को होगा फायदा

बिहार चुनाव कथा : यादव-भूमिहार के सटा-सटी से क्या सच में राजद को होगा फायदा

बिहार में दो जातियां राजनीतिक तौर पर वाचाल रही हैं। आक्रामक राजनीति के लिए भी जानी जाती हैं। ताकतवर भी रही हैं, इसलिए इनका फैलाव लगभग सभी दलों में हुआ। वे दो जातियां हैं भूमिहार और यादव। राजद को यादवों की पार्टी माना जाता है लेकिन हाल के समय में राजद ने भूमिहारों को आकर्षित करने की पहल की है। इसमें अब एक बड़ा नाम मोकामा विधायक अनंत सिंह का भी आ रहा है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि वे राजद में जाएंगे। अगर अनंत सहित कुछ अन्य भूमिहार नेता राजद में जाते हैं तो इसका क्या राजनीतिक असर होगा, इस पर वरिष्ठ पत्रकार निराला बिदेसिया लिखते हैं।

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Mokama ,मोकामा

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इन दोनों जातियों को देखिए,इनका राजनीतिक इतिहास देखिए,प्रायः सभी दलों में मिलेंगे। भूमिहार को देखिए,कांग्रेस,भाजपा,कम्युनिस्ट,जदयू सभी जगह मिलेगा इनका इतिहास। और वह भी ठीक ठाक स्थिति में। इसी तरह यादव भी। राजद तो खैर है ही, लेकिन दूसरे दलों में भी इस जाति के चर्चित नेता रहे। रामलखन सिंह यादव कांग्रेस में रहकर शेरे बिहार कहलाये। राजाराम यादव जैसे नेता आजीवन माले में रहे। हुकुमदेव नारायण यादव, नंदकिशोर यादव,नित्यानन्द राय जैसे नेता भाजपा में। बिजेंद्र यादव जदयू में हैं और महत्वपूर्ण नेता हैं।बिहार की इन दोनों राजनीतिक जातियों के नेता सभी जगह फैलते रहे लेकिन दोनों के बीच एक दूरी रही।

हालिया वर्षों से। हालिया दशकों से। इन दोनों जातियों का राजनीतिक एकीकरण हो जाए, इसके लिए कोशिश जारी रही। लालूजी ने भी अपने समय मे खूब कोशिश की कि भूमिहार उनके साथ रहें। राजनीति में साथ रहने का मतलब सिर्फ वोट देना नही होता।वोट बैंक का गणित अलग होता है, नेताओं को प्रश्रय देने,महत्व देने का गणित अलग। राजनीति में जाति विशेष के नेताओं को अपने साथ दूसरी वजहों से भी रखा जाता है। न्यूट्रल करने के लिए, विरोध को कम करने के किए,आक्रमकता की धार को कम करने के लिए।

लालू यादव ने बिहार के पांच टॉप राजपूत नेताओं को साथ रखा वर्षों से। यह जानते हुए भी कि इसका मतलब यह कतई नही होगा कि इन नेताओं के रहने से राजपूत जाति का एकमुश्त वोट उन्हें पड़ेगा,बल्कि इसलिए कि राजपूत जाति संगठित नही रहेगा उनके विरोध में। ऐसा हुआ भी। राजपूत राजद के समर्थक नही रहें तो कट्टर विरोधी भी नहीं।

बिहार में नरसंहारों के दौर के बाद लालूजी और भूमिहारों की दूरी बढ़ी। यह दूरी इतनी बढ़ी कि राजद से एक भी टिकट भूमिहारों को नहीं मिलने लगा। हालांकि इस दूरी को पाटने के लिए लालूजी ने खूब कोशिशें की। 2005 के चुनाव में वह खुद बिहार के एक मठिया में गये। वह मठिया पटना से सटे हुए है। कहा जाता है कि उस मठिया से बिहार के भूमिहारों की राजनीति डील होती है। लालूजी वहां जाकर घँटों बैठे, चंदा दिए लेकिन बात बनी नहीं। गुस्से में उन्होंने अपनी पार्टी में भूमिहारों को निल बट्टा सन्नाटा भी किया।

लेकिन अब एक बार फिर से उनके बेटे तेजस्वी एक नये समीकरण बनाने की कोशिश में हैं। वह भूमिहारों को महत्व देना शुरू किए हैं। राजपूतों की तरह अपनी पार्टी में भूमिहार नेताओं की एक एक गैलेक्सी बनाना चाहते हैं। शुरुआत अमरेंद्र धारी सिंह को राज्यसभा भेजकर हुई। कट्टर विरोधी और दुश्मन अनन्त सिंह को अपनी पार्टी में लेकर उसे परवान चढ़ाने की कोशिश हुई है। असर क्या होगा,इसकी थाह लगाना अभी जल्दबाजी है। हां, इसका एक असर जरूर होगा,वह होगा एक नयी किस्म की गोलबंदी। राजद के साथ बहुत सारी छोटी आबादी वाली जातियां इसलिए जुड़ी हुई थी,क्योंकि राजद भूमिहारों से आमने सामने की बात करता था।

बिहार में नरसंहारों के दौर में,रणवीर सेना के उभार के दौर में, परसेप्शन के लेवल पर भूमिहार कई जातियों के लिए खलनायक की तरह हो गये थे। लालू जी ने उन जातियों के मन मे पनपे इस भाव को और परवान चढ़ाकर राजनीतिक फसल भी काटी। अब एक बार फिर से समीकरण बदलने की कोशिश की जा रही है। इसका असर गांव जवार में बन रहे नये समीकरण को देखा महसूसा जा सकता है।

माइक्रो लेवल पर नए समीकरण बन रहे हैं। सिर्फ ऊपरी स्तर पर नेताओं के पालाबदल का खेल नही चल रहा,हटा-हटी,सटा-सटी का खेल नहीं चल रहा बल्कि उससे ज्यादा तेजी से और ज्यादा ठोस रूप में जमीनी स्तर पर नये समीकरण बन रहे हैं। राजनीति सिर्फ एक और एक दो के सिद्धांत पर नहीं चलता। एक और एक ग्यारह भी होता है, एक और एक एक भी,एक और एक शून्य भी। प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था बातचीत में,नेताओं की गोलबंदी वर्टिकल शेप में होती है,जनता की गोलबंदी होरिजेंटल शेप में।

बिहारचुनाव2020 #BiharElection2020

साभार – निराला बिदेसिया

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