आज ही वह बदनसीब दिन हैं जब देश की आजदी के दीवानों ने हँसते हँसते अपनी कुर्बानी दी थी. भगत सिंह और उनके दो साथी सुखदेव और राजगुरु को आज ही के दिन लाहौर के जेल में फांसी दी गई थी.पूरे जेल के कैदी रो रहे थे जब इन तीनो को फांसी के लिए ले जाया जा रहा था. 1 साल और 350दिन तक जेल में रहने के बाद उन्हें 24 मार्च 1931को फांसी का दिन निर्धारित हुआ था,पर जनता के विरोध को देखते हुए अंग्रेजी हुकुमत ने एक दिन पहले ही भारत माँ के तीनों सपूतों को फांसी पर लटका दिया . सतलुज के किनारे इनके शवों को जल्दी जल्दी जला दिया गया था.आखिरी समय में भगत सिंह और उमके साथियों के चेहरे पर मौत का तनिक भी भय नहीं था.भगत सिंह तो मौत के दिन भी लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे ,जब जेलर उन्हें लेने के लिए आया तो उन्होंने कहा की “थोडा रुको एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले ” फिर 1 मिनट किताब पढ़ा फिर बोला अच्छा चलिए .भगत सिंह ने जेल में रहते ही हजारों किताबे पढ़ी थी.उनके लिखे हजारों नोट आज भी संकलित नहीं हो पायें हैं.उनका न्यायालय परिसर में कहा गया एक एक वाक्य लाखों क्रांतिकारियों को बल देता था. बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है यह वाक्य हिन्दुस्तान के हर क्रांतिकारियों के जुबान पर था.इन्कलाब ज़िंदाबाद के नारे जब भी लगाये जाते हैं तो भगत सिंह और उनके साथियों के चेहरे बरबस याद आ जाये हैं.
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” शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा” मोकामा ऑनलाइन देश के लिए अपना सर्वोच्च न्योछवर करने बाले वीर भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है.आपकी कुर्बानी के बदौलत ही हम आजाद भारत का सवेरा देख पाए हैं.
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