मिट रही पहचान, नहीं मिलते कद्रदान!

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भारतीय मूर्ति कला पूरे विश्व में अद्वितीय मानी जाती थी है, और रहेगी भी। आज भी इसकी उतनी ही मांग है जितनी पहले थी। पर भारतीय कला को जीवंत रखने वाले कलाकारों को भर पेट दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है। आज अपने ही घर में कला के रखवाले आधुनिकता की इस नंगी दौड़ में अपने आप को ठगा महसूस कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं रोड में घूम घूम कर अपनी कला का जादू लकड़ी पर उकेर कर अपना और अपने परिवार का पेट चलाने वाले पासकल प्रभुदयाल की जो किसी तरह अपनी जीविका चला रहे हैं।

तीसरी तक की है पढ़ाई

हजारीबाग दिपूगढ़ा में स्थित मरियम टोली में रहने वाले पासकल प्रभुदयाल मूलत: बिहार के मोकामा के रहने वाले हैं। इनका बचपन अत्यंत ही गरीबी में बीता। इनकी मां और पिता की दूर्घटना में आंख की रोशनी चली गई। पैसे के अभाव और परिवार का बोझ सर पर आने के कारण तीसरी तक ही पढ़ाई कर सके।

सिस्टर सिग्रैट ने दिलाई पहचान

प्रभुदयाल की गरीबी को ध्यान में रखते हुए हजारीबाग चर्च की सिस्टर सिग्रैट ने उसकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें पूणे आर्ट कॉलेज मुबंई से क्राप्ट हुड में प्रशिक्षण दिलाया।

लकड़ी की कला में है महारत हासिल

पचास वर्षीय प्रभुदयाल को लकड़ी की कला में माहरत हासिल है। उनकी विशेषता है कि वे किसी भी व्यक्ति की तस्वीर देख कर उसकी हूबहू आकृति लकड़ी में उतार देते हैं। उनकी इस कला से प्रभावित होकर उन्हें तत्कालीन विशप हजारीबाग क्षेत्र ने 1990 में आस्ट्रेलिया ले जाकर कई चर्चो में काष्ठ कला की मूर्तियां बनवाई।

पटना रांची और कोलकाता में है मांग

प्रभुदयाल की कला को हजारीबाग में तो कद्रदान नहीं मिला, पर उनकी कला की जानकारी होने पर रांची, पटना और कोलकता से मूर्तियों के आर्डर मिलते हैं।

आडवाणी ने की है तारीफ

भाजपा के वरिष्ठ नेता सह पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आज से करीब छह- सात साल पहले हजारीबाग आगमन पर उनकी काष्ठ कला के बारे में जानकारी हासिल की और अपने पास प्रभुदयाल को बुलाकर मां रजरप्पा मंदिर की कलाकृति लकड़ी पर बनाने को कहा। प्रभुदयाल ने लकड़ी पर काष्ठकारी कर रजरप्पा मंदिर की अनुकृति बनाकर दिल्ली जाकर उनसे भेंट किया।

नहीं मिलते अब कद्रदान

लकड़ी कला में महारत प्रभुदयाल की पहचान अब खोने लगी है। समय के साथ इसके कद्रदान भी बदलते चले गये। आज इनकी कला को कोई पूछने वाला नहीं है। मुश्किल से परिवार की गाड़ी खींच रहे हैं। प्रभुदयाल कहते हैं कि हम इस कला को जीवित रखना चाहते हैं पर इस तरह तो हमारा परिवार दाने-दाने का मोहताज हो जाएगा।

नही मिली कोई सहायता

प्रभुदयाल ने कहा कि अगर हमें सरकारी सहायता मिलती तो हम कई बेहतर नमूने बनाते जो अद्वितीय होता। सरकार चाहे तो इस विलुप्त होती कला को बचा सकती है। अब तो लकड़ी भी आसानी से उपलब्ध नहीं होती। साथ ही लकड़ियों के दाम भी काफी बढ़ते जा रहे हैं। इस हिसाब से हमें इसके दाम भी नहीं मिलते।

(दैनिक जागरण १९-७-१२)

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